Tuesday, August 30, 2011

तलाश

सागर किनारे
रेत की नम भूमि पर
नंगे पाँव चलते, शंख बीनते, घरोंदे बनाते,
चला जाता हूँ मैं,
मैं उस क्षितिझ की खोज में, जो शायद ही मुझे कभी छू पायेगा,
या मैं उसे पा लूँगा, हाथ बढाकर,
हाँ, इससे ज्यादा मैं क्या कर सकता हूँ.
ज़िन्दगी के हर पड़ाव पर रुकता रहा हूँ,
कभी थका, कभी किसी का हाथ थामा, पकड़ा
कुछ दूर जाकर छोड़ दिया...
पर ख़त्म न हुई मेरी तलाश
क्या कभी बुझेगी ये प्यास?
शायद मेरे जाने के बाद !

Longing

From dream to dramatic, that's how I will describe my 2016. It was a glorious, adventurous, full of uncertainties and a transitional y...