Thursday, July 24, 2008

my comments on my Kanpur ...

कानपुर वाया साइबर बाईपास
एल्लो! कनपुरिए जहाँ भी जाते है धमाल मचा ही देते है। यही तो इस शहर की मिट्टी का कमाल है। कानपुर के इस ब्लॉग कानपुरनामा की चर्चा लोकप्रिय हिन्दी दैनिक अखबार हिन्दुस्तान दैनिक मे कवर की गयी है। चर्चाकार हैं हमारे लोकप्रिय,चर्चित ब्लागर साथी रवीशकुमार। रवीशजी ने शायद दैनिक हिन्दुस्तान में ब्लागचर्चा की पारी की शुरुआत की है। और शानदार शुरुआत की है।बड़े मन से लिखे इस लेख में रवीश ने कानपुरनामा के बारे में रोचक अंदाज में लिखा है। कानपुर के बारे में लिखते हुये रवीश कहते हैं-
पूरब का मैनचेस्टर और लखनऊ के पहले का महानगर कानपुर खंडहर में बदलने से पहले की स्थिति में एक बचा-खुचा शहर है। कनपुरिया भले मस्त हो लेकिन वो जानता है कि कानपुर पस्त हो गया है। वो उभरता हुआ नहीं बल्कि कराहता हुआ शहर है। जहां बिजली कम आती है और जनरेटर का धुंआ दिन में ही काले बादलों की छटा बांध देता है। आगे कानपुरकथा बांचते हुये रवीश कहते हैं-
ऐसे उदास शहर में लेखक जिंदादिली के सुराग ढूंढ रहे हैं। वो मोहल्लों और नुक्कडो़ की मस्ती उठाकर शहर को नये रंग में पेंट कर रहे हैं। पता चलता है कानपुर में गुरू शब्द का इस्तेमाल कितने रूपों में होता है। सम्मान और हिकारत दोनों के लिये। जुमलों का शहर है कानपुर।कनपुरिया-किस्से बताते-बताते ब्लागर रवीशकुमार कनपुरियों को छुआते भी चलते भी चलते हैं। ऐसी महीन छुअन की सहा भी न जाये और कहा भी न जाये-
कनपुरिया लिखने में भी लाठी उठा लेते हैं।फ़ायनल-फ़िनिसिंग मौज लेते हुये रवीश लिखते हैं-
कनपुरिया जीतू भाई को कानपुर पर गर्व तो है लेकिन वो कानपुर में नहीं रहना चाहते। बकौल जीतू भाई यहां धूल बहुत है। यही कानपुर की त्रासदी है। बिल्कुल ठग्गू के लड्डू की तरह। होता सच्चा है मगर बेचा जाता है धोखे से लगने वाले नारों से। बंटी बबली के शहर कानपुर में अब ब्लागरों का कब्जा हो रहा है। इस लेख स्वत:स्फ़ूर्त प्रतिक्रिया में कनपुरिया ब्लागर रितू ने जो प्रतिक्रिया दी वह एक कनपुरिया की सहजबयानी है। पढ़कर बेसाख्ता मुंह से निकला -अरे वाह, झाड़े रहो कलट्टरगंज! रितु कहती हैं-
सुबह-सुबह हिन्दुस्तान देखा तो संपादकीय पेज पर कानपुर का नाम दिखाई दिया। आंखे खुल गयीं, नींद दूर भाग गयी। कानपुर का जिक्र कहीं भी आये.... पाजिटिव या नि्गेटिव हम कनपुरियों को हमेशा अच्छा लगता है। कानपुरी ....बगल में छूरी किसी से सुना था ये। और यकीन मानिये बुरा लगने की जगह अच्छा ही लगा। हम तो बेलौस कहते हैं कि हां हम कनपुरिये बड़े खुराफ़ाती होते हैं। सच पूछिये तो कानपुर में ऐसा कुछ फ़क्र करने जैसा है नहीं। और इन्फ़्रास्ट्रक्चर को देखते हुये कानपुर रहने लायक भी नहीं है। और आज से एक साल पहले तक मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा थी जो कानपुर में रहकर भी शहर को दबाकर गालियां देते हैं। लेकिन अचानक रेडियो मिर्ची में कापी राइटर बनने के बाद , और खांटी कन्पुरिया शब्दों को ढूंढते कब अपने शहर पर प्यार उमड़ पता ही ब चला। बंटी बबली की खुराफ़ात हो या टशन की हरामीपन्थी , कानपुर तो कान्हैपुर है। फिर कोई कुछो कहत रहे हमका कौनौ फरक नहीं पड़ता। क्यों भइया हम तो पूरे कनपुरिया हैं। और जब आप जैसे बड़े-बड़े लोग कानपुर के बारे में कुछ लिखते हैं तो मौज आ जाती है। दुनिया जहानघूम कर भी अपने शहर का जो आलम है... गजब है। इसीलिये तो कहते हैं हम कि चाहे कल्लो दुनिया टूर, अई गजब है कानपुर।आगे अब आप खुद ही पढ लीजिए ये रहा लिंक (इस लिंक को इन्टरनैट एक्प्लोरर मे खोलने से हिन्दी फोन्ट अपने आप दिख जाएगा, किसी और ब्राउजर से खोलने पर आपको हिन्दी फ़ोन्ट डाउनलोड करना पड़ सकता है।
ब्लॉगवार्ता : कानपुर वाया साइबर बाईपास
http://www.hindustandainik.com/news/2031_2128177,00830001.htm

Longing

From dream to dramatic, that's how I will describe my 2016. It was a glorious, adventurous, full of uncertainties and a transitional y...